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हमारे पुरखो की रांची…
रांची एक गांव थी जो “रिची बुरु” के नाम से जाना जाता था। फांसी टूंगरी जो अब पहाड़ी मंदिर के रूप में जाना जाता है।वही “रिची बूरु” की मुख्य पहाड़ी थी।रांची शब्द का उत्पत्ति “रिची यानी बाज पक्षी” से हुआ है,बुरु मतलब पहाड़, यानी बाज पक्षी का निवास स्थान “रिची बुरू”।
सकारात्मक पहल:
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हमारे पुरखो की रांची…
कैसे बनी चारागाह…
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प्राकृतिक और विकृति का द्वंद!
को….
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रांची एक गांव थी जो “रिची बुरु” के नाम से जाना जाता था। फांसी टूंगरी जो अब पहाड़ी मंदिर के रूप में जाना जाता है।वही “रिची बूरु” की मुख्य पहाड़ी थी।रांची शब्द का उत्पत्ति “रिची यानी बाज पक्षी” से हुआ है,बुरु मतलब पहाड़, यानी बाज पक्षी का निवास स्थान “रिची बुरू”।
रिची व बुरू मुंडारी भाषा का शब्द है, रिची से ही “रांची” नामकरण हुआ है। इसके अतिरिक्त
उरांव कुरुख पौराणिक लोकगीतों व कथाओं व विकिपीडिया के अनुसार रांची उरांव शब्द “रअयची” से आया है, जिसका कुरुख उरांव शब्दीक अर्थ होता है “रहने दो”।
20वीं शताब्दी में यहां घना जंगल हुआ करती थी और इन जंगलों के गांव में मुंडा, उरांव, खड़िया, बिरहोर कुछ संख्या में हो और संथाल आदिवासी रहते थे।
चारों ओर घने जंगलों,नदी नालों, झरनों, छोटे-छोटे पहाड़ी व पहाड़ों से सुशोभित रांची में आदिवासियों के साथ-साथ बाघ, भालू,बंदर,हाथी,सूअर, हिरण, मोर,बाज,बगुला,तोता, उल्लू जैसे रंग-बिरंगे पशु-पक्षी रांची की मनोरम प्राकृतिक वातावरण में रचा बसा करते थे।
सर्वप्रथम अकबर कल में अफगान विद्रोही सरदार जुनैद करारानी छोटा नागपुर “रांची” में पहली बार प्रवेश किए।अंग्रेजों की नजर “रांची” की मनोरम वातावरण में पड़ी और वे इसे देश के ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने हेतु निश्चय किए।यहीं से बाहरी आबादी के आगमन के साथ “रांची” एक शहर के रूप में विकसित होने लगा और आजादी के बाद पटना से बिहार सरकार के 50 वर्षों की उपनिवेशी शासन के दौरान बड़ी संख्या में उत्तर बिहार के लोग रांची में रोजी रोजगार हेतु रचने-बसने लगे,बढ़ती आबादी की बोझ ढोंने हेतु आज की कंक्रीट से सजी रांची आपके सामने है। ग्रीष्मकाल में रांची में तापमान अधिकतम 45 डिग्री तक जाने लगी,शहरी क्षेत्र के पेड़-पौधे, नदी-नाले,टूंगरी-पहाड़,पहाड़ी, जंगलों को नष्ट कर बाहरी आबादी बसने लगी। जिसके परिणाम स्वरूप आज की उजड़ी सी “रांची” आपके सम्मुख है, सिर्फ नाममात्र के आदिवासी गांव, सरना पूजा स्थल, देशावाली,अखाड़ा बचे हैं,जहां कुछ अनुपात में पेड़ पौधे व हरियाली बची हुई है। “रांची” की जीवन रेखा शहर के बीचो-बीच आदिकाल में बहती दो नदियां “हरमू एवं कोकर” नदी आज नाले में तब्दील हो गई है। दोनों जीवन उपयोगी नदियां कचरा पानी धोने वाले गंदे नाले के रूप में परिवर्तन हो चुकी है, कोकर नदी के पास धरती आबा बिरसा मुंडा की समाधि स्थल है,यह एक ऐतिहासिक नदी है, जिसे विकास व औद्योगिकरण के नाम पर विनाश कर दिया गया है। आज कोकर औद्योगिक क्षेत्र के रूप में जाना जाता है। कोकर “कुकर” मुंडारी भाषा का शब्द से आया है,जिसका मतलब होता है: उल्लू पक्षी। इसी उल्लू(कुकर)पक्षी के नाम पर कोकर नदी का नामकरण हुआ था। इस इलाके में घने जंगल हुआ करते थे। कोकर नदी को बड़ी पवित्र मानी जाती थी,कोकर नदी किनारे बड़े-बड़े पेड़ों मे बड़ी संख्या में कुकर यानी की “उल्लू” रहा करते थे। रात को उड़ते समय बड़ी संख्या में ये पक्षी तेज आवाज में कोरकोच-कोरकोच करके आवाज निकालते थे।इसी कुकर “उल्लू” पक्षी के नाम से कोकर गांव का भी नामकरण हुआ था। यह एक आदिवासी बहुल गांव था, जिसमें मुंडा,उरांव, खड़िया आदिवासी रहते थे। इसी प्रकार आज के मोरहाबादी जिसे मुंडारी भाषा में मुंडा लोग मोराबादी कहते हैं। यह एक मुंडारी शब्द है और मोराबादी का मतलब होता है :
मोरा बादी – मोरा (व्यक्ति का नाम) + बादी (दोन वाला खेत), अर्थात मोरा का खेत।
इसी प्रकार दुरांग + दा से आज का आधुनिक डोरंडा बना।
दुरंग दा: – दुरंग (गीत) + दा: (पानी) अर्थात ऐसा जगह जहां प्राचीन काल में जब घने जंगल हुआ करता था।जब लोग जंगल जाते थे,गीत गाकर अपना मन बहला लेते थे,आस- पास प्रचुरता से पानी उपलब्ध था को दुरंग: दा कहते हैं।
दोनों ही मुंदरी शब्द है।
कितना सुंदर था, हमारे पुरखों की रांची व इसके गांव टोला का कितना अर्थपूर्ण नाम था।
अब प्रश्न उठता है कैसे बना हमारे पुरखों का सुंदर मनोरम रांची चारागाह।
आधुनिक रांची जिला जिसे पी:पैसा कानून 1996 के तहत नॉर्थ ईस्ट के छठी अनुसूची के तर्ज पर राजी पड़ाहा,मानकी मुंडा रांची स्वशासी जिला परिषद के अधीन रूढ़ि व प्रथा से पड़ाह राजा व मनकी मुंडा व्यवस्था से स्वशासित होना है, के विपरीत भारतीय संविधान के भाग 09 नगर पंचायतो का अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार अधिनियम( मैसा) कानून नहीं बनाकर गैर संवैधानिक रूप से रांची नगर निगम का गठन कर सरकारी स्तर पर RRDA बनाकर रांची को चारागाह के रूप में तब्दील कर दिया गया।
जब झारखंड की प्रजातांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकारें विगत 24 वर्षों से जब से झारखंड अलग राज्य गठन हुआ है, उपरोक्त व निम्नलिखित संवैधानिक प्रावधान जिसे लागू कर रांची को चारागाह बनने से रोका जा सकता है के क्या मायने ??
जब सरकारें ही इतने उदासीन है,तो रांची को चारागाह बनने से कौन रोक सकता है। इनके अतिरिक्त एक नजर वैसे संवैधानिक प्रावधानों व कानून पर जिससे रांची को संरक्षण प्राप्त है।
(01)1874 में शेड्यूल जिला एक्ट घोषित।
(02) भारतीय संविधान की 244(01) पांचवी अनुसूची की सुरक्षा।
(03) सीएनटी एक्ट 1908 की जमीन संबंधित सुरक्षा।
(04) भूमि अधिकरण अधिनियम 1994 की सुरक्षा।
(05) ऐतिहासिक क्षमता निर्णय 1997 की सुरक्षा।
विचारणीय प्रश्न: देश की 18वीं लोकसभा हेतु रांची की जनता भी 25 मई 2024 को केंद्र की नई सरकार चुनने हेतु मतदान करेगी,तब क्या उपरोक्त विषयों को कोई राजनीतिक दल, उनके जनप्रतिनिधि, चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार व रांची के 21 लाख मतदाताओं मे से विशेषकर 35 प्रतिशत आदिवासी मतदाता जो लगभग 07 लाख के ऊपर है। अपने पुरखों के सुंदर मनोरम रांची को बचाने हेतु इन मुद्दों के प्रति कितने जागरुक व जवाबदेह है।
सकारात्मक पहल:
राजी पाड़ाह सरना प्रार्थना सभा, भारत व पर्यावरण मित्र,कोकर संस्था द्वारा 17 सितंबर 2023 को देशावली सह सरना पूजा स्थल, सजहानंद चौक, हरमू,रांची मैं “स्टार्टअप ग्रीन रांची” कार्यक्रम के तहत अगले 05 वर्षों में रांची शहर में 10 लाख पौधे रोपण व पोषण करने का लक्ष्य तय कर निरंतर रांची शहर में पौधारोपण कर रही है। ताकि हम हमारे पुरखे की खून पसीने से सनी रांची को कंक्रीट के विकास के आंधी में थोड़ी सी हरियाली की छाया प्रदान कर सके,और अपने आने वाली पीढ़ी के लिए थोड़ी सी जीवन की आशाएं छोड़ पाए।
उन्हें धन्यवाद।
समाचार संकलन व लेखक: संजय पाहन
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